Friday, June 25, 2010

gar nazron mein unki

गर तनहाई में खुदा का दीदार मयस्सर ना हो
गर जुदाई में मोहब्बत का दर्द शामिल ना हो
गर झुकी इन पलकों में हया का डेरा न हो
क्या कहूँ में ऐ मेरे मौला
गर ज़िन्दगी में जूनून का असर ना हो
गर जुल्फों में उनकी मेरा आसरा न हो
गर नज़रों में उनकी मेरी तस्वीर ना हो
कि ये मोहब्बत नहीं मेरा पागलपन है
गर मुझपर उनकी नज़र-ए-इनायत ना हो

1 comment:

  1. hi, this poem looks incompete....it has no end..or may be I didn't understand it properly

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