Sunday, March 6, 2011

काफिर

कौन कमबख्त कहता है तुझे काफिर
गर बात मेरी करते हो ऐ जानिब
तो जानो कि मैंने खुदाई को रुसवा किया है 
अक्स पे मैंने खून-ऐ-रोशनाई से ज़िक्र किया है
कि इबादत हम खुदा की क्या करें 
जब खुदा ने ही ज़ख्म बेमिसाल दिया है
कि आलम कुछ इस क़द्र है बेसब्र खुदा का
ना वो मुझे जन्नत ना जहन्नुम दे सकता है
कौन कमबख्त कहता है तुझे काफिर
कि हश्र मेरा देख, मुझे तो दोज़ख नसीब ना हुआ

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