Wednesday, August 26, 2015

आरक्षण - अवसरवादी राजनीति

सन १९४७ में भारत स्वतंत्र तो हुआ, किन्तु साथ ही शुरू हुई एक अलग ही अधीनता। यह अधीनता थी राजनितिक अधीनता जिसका शुभारम्भ तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में हुआ था। जवाहरलाल नेहरू के अनुसार पिछड़े वर्ग, अनुशुचित जाती एवं अबुसूचित जनजाति को विद्यालयों में तथा सरकारी नौकरी में कुछ प्रतिशत आरक्षण का प्रयोजन किया गया। तत्समयानुसार इस आरक्षण का प्रावधान केवल प्रथम २०  वर्षों के लिए किया गया था। परन्तु,  समय के साथ राष्ट्र ने जो राजनितिक पतन देखा उसके चलते मत (वोट) की राजनीती के लिए इंदिरा गांधी ने इस प्रावधान को कानून बना दिया। उसके बाद राजीव  के प्रशाशन काल में जो आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में आंदोलन हुए वे अपने आप में एक गाथा हैं। उसके बाद भी हमने आरक्षण के जो प्रावधान देखें हैं उनके अनुसार आज के समय में ४९% के आसपास आरक्षण का प्रावधान है। 

यदि हम आज के समय में आरक्षण का आकलन करें तो पाएंगे की ४९% आरक्षण के बाद भी पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाती, अनुशुचित जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग सामान्य श्रेणी के ५१% में भी अपना हक़ जताते हैं। 
 क्या यह अपने आप में एक लज्जाजनक बात नहीं है?  अपने राजनीतिक लाभ के लिए कुछ राजनेताओं ने आरक्षण के प्रावधानों का जो दुरुपयोग किया है, उसका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। पहले हरियाणा में जाट आंदोलन, उसके पश्चात गुज्जर आंदोलन, और अब गुजरात में पटेल आंदोलन, ये सभी एक तरह से राजनितिक अवसरवादिता की अधीनता के ही परिणाम हैं। 

आज हर दूसरा वर्ग पिछड़े वर्ग अथवा अन्य पिछड़े वर्ग में अपना नाम सम्मिलित करवाना चाहता है, क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि भारत की अवसरवादी राजनीति के अधीन यही उचित है। यदि आरक्षण का प्रावधान इसी प्रकार अजगर की तरह अपना मुंह फाड़ता रहा, तो वह समय दूर नहीं जब सामान्य वर्ग अपने लिए आरक्षण की मांग करेगा और उसमें केवल सामान्य वर्ग को ही योग्यता अनुरूप जगह मिलेगी। 

स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी किसी भी राजनितिक दल ने अथवा तथाकथित बुद्धिजीवी ने यह मांग नहीं उठाई कि वर्गानुसार आरक्षण की जगह आर्थिक स्तर पर आरक्षण का प्रावधान किया जाए। किसी भी प्रधानमंत्री, गृह  मंत्री अथवा किसी भी अन्य मंत्री ने क्या इस प्रावधान में परिवर्तन के बारे में कोई पहल की?? नहीं, क्योंकि उसका कोई राजनितिक औचित्य नहीं होगा। 

किन्तु, आज के समय वर्ग के अनुसार आरक्षण प्रावधान की जगह आर्थिक स्तर पर आरक्षण का प्रावधान ज्यादा मायने रखता है। देश के सर्वोच्च प्रशाशनिक कार्यालय के करता धर्ता होते हुए, भारत के प्रधानमंत्री को वर्ग अनुसार आरक्षण पद्धति को तत्काल प्रभाव से निष्क्रिय घोषित कर नए आरक्षण प्रावधानों के  गठन के लिए उच्चस्तरीय दल  का गठन करना चाहिये। यदि आज राष्ट्र ने इन आंदोलनों से सीख नहीं ली तो यह तो तय है की आने वाले कुछ वर्षों में एक और महाभारत एवं एक और चक्रव्यूह की रचना होगी और इसके लिए केवल और केवल हमारे राष्ट्र की राजनितिक अवसरवादिता और राजनितिक अधीनता ही जिम्मेवार होगी । 

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