Monday, November 2, 2015

मानवधर्म की एक सत्य घटना

गए दिनों की बात है जब मेरी 2 वर्ष की बेटी अपनी नानी के घर बाहर खेल रही थी। वहीं बाहर सड़क पर एक खिलोने बेचने वाला निकला जो कुछ सस्ते और छोटे खिलोने बेच रहा था। उसके पास गुब्बारे देख कर बिटिया मचल गई और उसने गुब्बारों और खिलोनो के लिए अंदर से अपनी माँ को बुलाया। हमारी 2 वर्ष की बच्ची का मन रखने के लिए मेरी धर्मपत्नी ने उस खिलोने वाले से कुछ खिलोने खरीदकर जब उसे पैसे दिए तो उसने पूछा "बहनजी पुरे हैं ना?" मेरी धर्मपत्नी ने उससे कहा "गिन लो, जितने तुमने बोला था उतने पुरे हैं"।  वह लड़का बोला "बहनजी गिन सकता तो पूछता क्यों? लगता है आपको पता नहीं है मैं अंधा हूँ"।  मेरी धर्मपत्नी एक बार तो सकते में आ गई लेकिन फिर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उस लड़के से पूछा - "क्या हुआ और कैसे हुआ? क्या तुम जनम से अंधे हो या कोई अनहोनी घटना हुई?"  लड़का  बोला - "जी 5 वर्ष की उम्र तक मेरी आँखें ठीक थी, किन्तु उसके बाद धीरे धीरे मुझे दिखना बंद हो गया"। कुछ और बातें हुईं तो उस लड़के ने बताया कि वह अनाथ है एवं खिलोने बेच कर ही जीवन यापन करता है।

मेरी धर्मपत्नी ने उससे और कुछ प्रश्न किये एवं फिर उससे पूछा कि किसी डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते? जिसपर वह लड़का बोला कि प्रतिदिन काम कर कर प्रतिदिन खाने वाला गरीब और अनाथ डॉक्टर को पैसा कहाँ से देगा? इसपर मेरी धर्मपत्नी ने उसे आश्वासन दिया कि वह कुछ करेगी उस स्वाभीमानी लड़के के लिए और प्रयत्न करेगी कि उसकी आँखें फिर से ठीक हो जाए और वह देखने लगे।   उस दिन के बाद से मेरी धर्मपत्नी प्रतिदिन उससे कुछ गुब्बारे और खिलोने खरीदती है। उसे लगा कि यदि  यह लड़का सही में अंधा है तो इसकी सहायता करनी चाहिए, किन्तु यदि यह झूठा है तो?  अचम्भे की बात यह थी की वह लड़का प्रतिदिन अपने समयानुसार ही आता था, समय थोड़ा इधर या उधर बहुत ही कम होता था। इसपर मेरी धर्मपत्नी ने उससे पूछा कि क्या उसे अपनी राह ढूंढने में कोई समस्या नहीं लगती, तो उसने बताया - "पहले मैं अन्य जगहों पर भी जाता था और मुझे तो दिखाई नहीं देता था किन्तु इस दुनिया में तो आँखे होते हुए भी  लोग सीधी गाडी नहीं चला सकते और एक दो बार मेरे साथ दुर्घटना हुई या होते होते बची। उसके बाद मैंने धीरे धीरे अपने लिए ऐसे रास्ते चुने जिनपर गाड़ियों की कम आवा जाही होती है और बस ऐसे ही जीवन चल रहा है।"

उपरोक्त वाकये के बाद मेरी धर्मपत्नी ने मेरे विचार पूछे और मैंने उन्हें कहा कि वे उसकी  सहायता करें। उनके पहचान में जो आँखों के डॉक्टर हैं उनसे विचार विमर्श कर उसके लिए सहायता उपलब्ध करवाएं। ऐसे स्वाभीमानी लोगों की सहायता करना मानव धर्म है एवं यही मानवता है। इसपर उन्होंने यह प्रण लिया है कि  उस लड़के के लिए उचित प्रबंध कर एवं नेत्र शिविर में उसका नामांकन करवा कर वे उसकी सहायता करेंगी। 

उस लड़के का बड़प्पन देखिये की गरीब है किन्तु इस सहायता के आश्वासन के भी वह मेरी बिटिया को निःशुल्क गुब्बारे देना चाहता है। कहता है "मुझे लगेगा कि आप मेरी सहायता दया देख कर नहीं कर रहे हैं। मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं है किन्तु इस बिटिया के लिए प्रतिदिन कुछ गुब्बारे और खिलोने तो हैं।" 

किन्तु मेरी धर्मपत्नी ने उससे कहा - "ये बांटने के लिए नहीं तुम्हारा जीवन  यापन करने के लिए हैं। मोल तो प्रतिदिन लेना ही पड़ेगा।"


No comments:

Post a Comment