Sunday, February 17, 2019

जम्मू कश्मीर में सैनिकों का राजनीतिक क़त्ल - गुनहगार कौन???

CRPF के जवानों पर पुलवामा में हुए हमले की ज़िम्मेदारी केवल पाकिस्तान अथवा पाकिस्तान समर्थित आतंकियों की ही नहीं है। इसके लिए हर वो शख़्स ज़िम्मेदार है जिसने जम्मू कश्मीर की समस्या हल करने की जगह उसपर राजनीति की है। इसकी शुरुआत 1947 के विभाजन से शुरू हुई एवं पिछले 72  सालों से चल रही है।  

यदि हम इतिहास की और रूख करते हैं तो पाएँगे कि जम्मू कश्मीर का वर्तमान स्वरूप अंग्रेजों एवं जम्मू के तत्कालीन महाराजा गुलाब सिंह जी के बीच हुई अमृतसर संधि के बाद आया। अगले 100 सालों तक इसपर महाराजा गुलाब सिंह जी (डोगरा) के वंशज राज करते रहे| 1857 में महाराजा गुलाब सिंह जी के बेटे रणबीर सिंह जी राजा बने एवं 1925 में रणबीर सिंह जी के पोते हरी सिंह जी राजा बने| महाराजा हरी सिंह 1925 से 1947 तक जम्मू और कश्मीर के शाषक थे एवं उन्ही का एक निर्णय जम्मू कश्मीर की वर्तमान हालत का प्रथम चरण है| 

जैसा की हम सब जानते हैं कि 1947 में महाराजा हरी सिंह जी ने जम्मू और कश्मीर को एक आज़ाद देश रखने का मन बनाया था, किन्तु पाकिस्तानी हुकूमत जम्मू और कश्मीर को पाकिस्तान में सम्मिलित करना चाहती थी| पाकिस्तान ने सबसे पहले पख्तून मिलिशिया एवं पूँछ के बागी समुदाय के बल पर जम्मू कश्मीर पर हमला किया| महाराजा हरी सिंह ने जब भारत से मदद की गुहार लगाई, तो भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री (जवाहर लाल नेहरू) ने इसे दो देशों के बीच का आपसी मामला बता कर मदद करने से इंकार कर दिया| उधर पख्तून हमलावरों एवं पूँछ के बागी लगातार नरसंहार करते हर जम्मू एवं श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे, जिसे देख कर महाराजा हरी सिंह जी ने जम्मू और कश्मीर को भारत में शामिल करने की संधि कर ली, एवं भारत ने सेना भेज कर हमलावरों को काफी हद तक खदेड़ दिया| जो मात्र एक हिस्सा छूट गया था वह आज पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है| यहाँ पर यह जानना जरुरी है कि इस सब के बीच में गिलगित बल्तिस्तान के कार्यकारी निरीक्षक (ईस्ट इंडिया कंपनी का एक अधिकारी) ने गिलगित बल्तिस्तान वाले हिस्से को पाकिस्तानी हुकूमत के सुपुर्द कर दिया था अतः पाक अधिकृत कश्मीर में गिलगित बल्तिस्तान का उल्लेख नहीं होता है| 

अब यह एक सोचने वाली बात यह है कि जब भारतीय सेना ने हमलावरों एवं बागियों को पीछे खदेड़ दिया था तो पाक अधिकृत कश्मीर कैसे बना? जी, यहीं पर जम्मू कश्मीर की समस्या का द्वितीय चरण बनता है - तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का इस समस्या के समाधान के लिए UN में जाना| महोदय UN के पास समस्या ले कर गए और LOC (लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल) खींच दी गयी| माने या न माने, सत्य यही है कि द्वितीय चरण में हुई इस गलती का खामियाजा भारत के जवान आज तक भुगत रहे हैं एवं उनके परिवार आज तक माटी के लाल खो रहे हैं| 

तृतीय चरण पर हुई गलती 1965 के युद्ध में| एक बार फिर यहाँ पर पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर के तहत जम्मू कश्मीर में घुसपैठिये भेजने की कोशिश की एवं भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री (लाल बहादुर शास्त्री) ने युद्ध की घोषणा कर दी| यहाँ पर तत्कालीन सोवियत यूनियन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मध्यस्थता कि गयी एवं 17 दिनों में युद्धबंदी हुई| कश्मीर समस्या के हल के लिए ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर हुए, किन्तु वहीँ लाल बहादुर शास्त्री की संदेहास्पद मृत्यु हो गई| अब गलती इसमें यह है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु पर एक राजनितिक हत्या का संदेह जाता है, किन्तु इसके कोई प्रमाण नहीं है| उनके पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि भी बिना पोस्ट मोर्टेम के की गयी, अतः कोई प्रमाण मिलने के आसार भी ख़त्म हो गए| जी, यही है इस चरण की गलती| 

उसके बाद 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में हुई बगावत, भारत द्वारा भेजी गई मुक्तिवाहिनी के बदले पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमला इस पुरे वाकये का चौथा चरण हैं| 1971 में जहाँ भारत ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश के रूप में एक आज़ाद देश बनवाया, वहीँ पश्चिमी पाकिस्तान से काफी हद तक पाक अधिकृत कश्मीर, पंजाब एवं सिंध का हिस्सा भी अपने कब्जे में ले लिया था| फिर हुआ शिमला समझौता जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) ने भारत द्वारा कब्जा किया गया संपूर्ण क्षेत्र वापस पाकिस्तान को दे दिया एवं LOC को ही जम्मू और कश्मीर की शाश्कीय रेखा मान लिया| यहाँ पर इंदिरा गांधी द्वारा एक अहम् फैसला गलत हुआ, उन्हें पकिस्तान को मजबूर करना चाहिए था कि संपूर्ण जामु और कश्मीर से पाकिस्तान पीछे हैट जाए तभी भारतीय सेना सिंध एवं पंजाब से पीछे हटेगी| 

इस समस्या का पांचवा महत्वपूर्ण चरण है 1984 का सियाचिन में हुआ एक छोटा सा प्रकरण| इसमें भारत ने ऑपरेशन मेघबूँट द्वारा सियाचिन पर तो कब्ज़ा कर लिया किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) ने फिर एक बार एक मौका खो दिया जिससे वे सियाचिन के साथ ही बाकी का कश्मीर, गिलगित बल्तिस्तान वापिस ले सकते थे| 

छठवें चरण पर आता है 1990 में हुए कश्मीरी पंडितों का क़त्ल एवं उनका कश्मीर से पलायन| इसपर ना तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ना ही किसी तथाकथित बुद्धिजीवी ने कभी कोई बात कही ना उस समस्या का आज तक कोई निदान हुआ| 

सातवें चरण पर आता है 1999 का कारगिल युद्ध जब तत्कालीन प्रधानमंत्री (अटल बिहारी वाजपेयी) एवं उनके नेतृत्व वाली सरकार ने भारतीय सेना को LOC पार करने से रोका एवं एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोर्चा खो दिया| 

उसके बाद पिछले 20 सालों में और भी कई बार भारत ने पाकिस्तान के इरादों पर पानी फेरा और 2016 में उरी में हुए हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक भी की, किन्तु कोई ठोस परिणाम नहीं आया| आज भी जम्मू कश्मीर में आतंक वादी भारतीय सेना पर हमला कर हानि पहुंचा रहे हैं| 

पाकिस्तान ने धीरे धीरे कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने के अपने इरादे को आज़ाद कश्मीर की लड़ाई का नाम दिया और आज उसे उसने धर्म का अमली जामा पहना कर कश्मीर को इस्लामिक देश बनाने का काम शुरू कर दिया है| इस्लाम के नाम पर, जेहाद के नाम पर, भारत के जगह हिन्दू राष्ट्र के खिलाफ बगावत के नाम पर पाकिस्तान कश्मीर के लोगों को भड़का रहा है| यहाँ तक की उसने सियाचिन के उठता में एक हिंसा चीन को उपहार स्वरुप भी दे डाला है| इसपर भी भारतीय राजनितिक तबका  केवल UN जाने की बात करता है एवं शिमला समझौते को मानने की बात करता है| 

यहाँ पर यह बताना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है की UN सुरक्षा समिति में भारत को चीन से पहले स्थाई सदस्यता मिलने वाली थी, किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री (जवाहर लाल नेहरू) ने अपने चीन प्रेम में  वह स्थान चीन को दे दिया एवं बदले में १९६२ का युद्ध पाया| आज वही चीन जैश के संस्थापक मसूद अज़हर को विश्व स्तर का आतंकवादी घोषित करने के खिलाफ UN सुरक्षा समिति में विरोध कर रहा है| 

अब आप ही बताइये की इस पुरे प्रकरण के विभिन्न चरणों का विश्लेषण यही तो कहता है कि भारतीय राजनीति में जम्मू और कश्मीर की समस्या समाधान हेतु कोई ठोस कदम नहीं उठाया| इसी कारण से आज पाकिस्तान अपना सर उनचार कर मसूद अज़हर, हाफ़िज़ सईद एवं अन्य आतंकियों को पनाह देता है एवं पाक अधिकृत कश्मीर (गिलगित बल्तिस्तान सहित) में आतंकियों को ट्रेनिंग देता है| 

और हमारे राजनीतिज्ञ क्या कर रहे हैं? हुर्रियत के लीडर्स को, ओमर अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ़्ती एवं ऐसे अन्य नेताओं की सुरक्षा हेतु दिन के २३ करोड़ खर्च करने में लगे हैं? क्यों? इससे जुड़े अन्य ज्वलंत प्रश्न है जिनके देश की जनता उत्तर चाहती है - 
  1. क्या यही २३ करोड़ कश्मीर की जनता के लिए इस्तेमाल नहीं हो सकते? 
  2. क्या यही २३ करोड़ सेना के जवानों के लिए खर्च नहीं हो सकते? 
  3. क्या अलगाववादी ताकतों की सुरक्षा माटी के लाल की जान से बढ़कर है? जनता अथवा सेना देश के लिए जीती है, किन्तु अलगाववादी एवं मेहबूबा मुफ़्ती जैसे नेताओं ने इस देश के लिए ऐसा क्या कर दिया है कि उन्हें सुरक्षा देने की जरुरत है?
  4. क्या पकिस्तान को सबक सिखाने के लिए एक बार, केवल एक बार भारत पहले हमला नहीं कर सकता? 
  5. कब तक हम छद्म युद्ध झेलते रहेंगे और अब तक हमारा देश माटी के सपूतों की बलि देता रहेगा?
  6. कब तक मोहन दास करमचंद गांधी के शान्ति के पथ पर चल कर हर गाल पर थप्पड़ एवं पीठ में छुरा खाते रहेंगे? इन्ही ने विभाजन के समय पाकिस्तान को ५० करोड़ रूपए दिलवाये थे, जिसका ब्याज हम आज भी आपने सपूतों के बहते खून में देख रहे है| क्या आज की इस समस्या में इनकी जिम्मेदारी नहीं है?
  7. कब यह देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस एवं भगत सिंह के सबक नहीं पढ़ेगा और पाकिस्तान से धोखा खाता रहेगा?
अंत में यही कहूंगा कि जम्मू और कश्मीर की ज्वलंत समस्या की सम्पूर्ण जिम्मेदारी हमारे लोभी राजनेताओं की है, एवं जब तक वे अपने लोभ से उठ कर देश हित में नहीं सोचेंगे, तब तक हमारे सैनिको को अपनी बलि देनी पड़ेगी| भारत के हर सैनिक की शहादत को जहाँ मेरा सलाम है, वहीँ उनकी मौत का जिम्मेदार भारत का हर राजनेता है जो सत्ता लोभ में विलीन है| 

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जम्मू और कश्मीर के इतिहास के बारे में पढ़ने के लिए आप निम्न लिंक पर जा सकते हैं -

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