Wednesday, September 30, 2015

घुँघट प्रथा - एक कुरीति

भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग कही जाने वाली घुँघट प्रथा क्या वाकई भारतीय है?  यदि आप इस प्रश्न पर गहन चिंतन करेंगे एवं इतिहास के पन्नों में इसकी उत्पत्ति का  खोजेंगे, तो आपका उत्तर होगा - "नहीं"। 

जी हाँ, घुँघट प्रथा भारतीय संस्कृति की अपनाई हुई एक कुरीति  जिसने वर्षों से  स्त्रियों को प्रगति राह पर अग्रसर होने से रोक है। घुँघट प्रथा की आड़ लेकर भारतीय  संस्कृति ने महिला शोषण को और भी प्रज्ज्वलित किया है। यदि घुँघट प्रथा इतनी ही प्रचलित है तो हमारी बहन बेटियों को अपने बालपन से ही घुँघट करना चाहिए; अन्यथा उन्हें कभी घुँघट नहीं करना चाहिए। क्यों हम स्वयं ही बेटी और बहु में अंतर पनपने देते हैं? क्यों आदर एवं सम्मान का नाम देकर बहुओं से घुँघट करते हैं? क्या हमारे पूर्वजों ने इस प्रथा का आरम्भ किया था जो हम इसे पीढ़ी दर पीढ़ी मानते आये हैं? ऐसे कई प्रश्न है जिनका उत्तर स्वाभाविक तरीके से एक आम भारतीय हाँ में ही देगा। किन्तु क्या यह सत्य है? नहीं, कृपया आप निम्न पहलुओं पर चिंतन करें - 

  1. घुँघट प्रथा कब से प्रारम्भ हुई - ईस्वीं सं १००० के बाद 
  2. घुँघट प्रथा क्यों प्रारम्भ हुई - क्योंकि दूर देश से आये आक्रमणकारी हमारी बहन बेटियों का रूप देख उनका शील भांग करने लगे थे
  3. घुँघट प्रथा के प्रचन में वृद्धि कब से हुई - बाहरी देशों से आये आक्रमणकारी  में बसने लगे तो वे अपने साथ अपनी प्रथा लेकर आये - "हिजाब" से घुँघट प्रथा का प्रचलन बढ़ा 
यदि उपरोक्त पहलुओं पर आपकी सहमति नहीं है तो आप एक बार फिर से प्राचीन संस्कृति का अध्ययन करें। सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं का अध्ययन करें। सतयुग की रामायण से लेकर महारानी पद्मिनी के जोहर तक की दंतकथाएं पढ़ें। कहीं से कहीं तक आपको घुँघट प्रथा का प्रचलन नहीं मिलेगा। 

यदि हम महारानी पद्मिनी के जोहर की बात करें, तो  उल्लेखनीय है कि तत्कालीन मुस्लिम शाषक ने महारानी पद्मिनी के रूप के गुणगान सुनकर चित्तौड़ महाराज से आग्रह किया कि उन्हें महारानी के दर्शन करने हैं। मित्रता का हाथ बढाकर वह  चित्तौड़ आया एवं उसने दर्पण में महारानी पद्मिनी की छवि देखी। और उसकी मक्कारी इतिहास में लिखी गई, चित्तौड़ से वापस लौटकर उसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उस युद्ध में महाराजा को वीरगति प्राप्त हुई एवं यह सुनकर महारानी पद्मिनी ने अपनी दासियों सहित आत्मदाह कर लिया।  किन्तु इसमें उस मक्कार एवं दुष्ट शाषक का छल था ना की घुँघट ना करने दोष। वह मक्कार शाषक महारानी को उठाकर अपने हरम में रखना चाहता था। तो क्या किसी दुष्ट के डर से महारानी घुँघट कर लेती? 

यदि एक बार फिर हम बहन बेटियों एवं बहुओं की बात करें तो हमारी बहन बेटी घुँघट नहीं करती फिर भी उन्हें अपने पिता एवं भाई से आदर एवं स्नेह मिलता है। फिर ससुराल आ कर क्यों उसे अपने ससुर, जेठ एवं दामाद से घुँघट करना पड़ता है? क्या ससुर पता एवं देवर जेठ भाई नहीं होते? क्या उनसे घुँघट करने से उनका आदर कम हो जाता है?  क्या ननंद और नंदोई से घुँघट करने से उनका सम्मान बढ़ जाता है?  मेरे विचारों में नहीं सम्मान बढ़ता नहीं है अपितु वे सम्मान खो देते हैं। मेरे विचारों में घुँघट उनसे किया जाना चाहिए जिनकी आँखों में लज्जा ना हो, जो एक स्त्री को केवल भोग विलास की वास्तु मानते हों, जिन्हें एक स्त्री में अपनी माँ, बहन एवं बेटी नहीं दिखती। मेरे विचार में घुँघट प्रथा को बढ़ने वाले वे वहशी हैं जो अपनी बहन बेटियों की रक्षा करने को तो आतुर रहते हैं, किन्तु किसी और की बहन बेटी उनके लिए केवल भोग विलास की "वस्तु" होती है। 

कुछ लोग मेरे विचारों का खंडन करेंगे एवं कहेंगे की लड़कियों एवं स्त्रियों को मर्यादित करने हेतु घुँघट अनिवार्य है; ऐसे महानुभावों से मेरा एक ही आग्रह है - " बहन बेटियों को मर्यादित रखने से ज्यादा आवश्यक है बेटों को मर्यादित करना। बेटियों को घुँघट में घोंट मारने से ज्यादा महत्वपूर्ण है समाज में उनका मान सम्मान बढ़ाना। बेटों को मर्यादित करोगे तो वे दूसरे की बेटियों का शील भांग करने की चेष्टा नहीं करेंगे और जब ऐसा नहीं होगा तब किसी को घुँघट नहीं करना पड़ेगा"

कृपया एक गाना भी याद रखिएगा - घुँघट की आड़ से दिलबर का दीदार अधूरा रहता है, जब तक ना पड़े आशिक की नज़र श्रृंगार अधूरा रहता है





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